फ़िर एक दिन इन आसुओं की सौगात आई थी
इस महकते आँगन में मेरे अरमानो की लाश आई थी
था इंतज़ार उस साथी का जिसने अमृत पास रखी थी
पर मुझे क्या पता वो भी आसुओं की बारिस में लहू -लुहान थी ।
साँसे टूट रही थी सपने यूँ ही बिखर रहे थे
इंतज़ार में ये आँखें आसुओं की बारिस कर रहे थे
आँगन में मेरे सिर्फ़ खून ही खून तैर रहे थे
फ़िर भी राह में उसकी मेरे अरमान जाग रहे थे
थम गई बारिस बह गए मेरे सारे सपने
आँगन में उसी लगे फ़िर से फूल महकने
पर ना मैं था ना थे मेरे कोई अरमान
इस पेड से फूल न तोड़ना यंहा कब्र में सो रहा है एक इंसान
Saturday, May 16, 2009
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